Sunday 14 October 2012

Muslims


मुख्‍यधारा में कैसे आए मुसलमान

सेना की चयन प्रक्रिया में आज भी ऐसी मानसिकताएं काम कर रही हैं, जो सेना में मुसलमानों के चुने जाने के ख़िला़फ हैं. मौजूदा समय में 10 लाख भारतीय सैनिक हैं, जिनमें मुस्लिमों की संख्या महज़ 29 हज़ार होना सेना में भेदभाव की ओर ही इशारा करता है.

ज़ाहिर है, आज़ादी मिलने के शुरुआती 25-30 सालों में बमुश्किल उन्हें सरकारी नौकरियों में जगह मिली. मुसलमानों पर अविश्वास और उन्हें शक की निगाह से देखा जाना एक बड़ी वजह रही, जिसके चलते वे शुरुआत से ही तऱक्क़ी की दौड़ में पिछड़ते चले गए.

आज अगर हिंदुस्तानी मुसलमान मुल्क की मुख्यधारा में कहीं नज़र नहीं आता, तो उसके पीछे बकायदा एक सोची-समझी साजिश रही है. सरकार के अंदर-बाहर बैठी दक्षिणपंथी ताक़तें बरसों से मुसलमानों के इर्द-गिर्द साजिशों के तार बुनती आई हैं, जिनकी गिरफ़्त से वे चाह कर भी बाहर नहीं निकल पा रहे हैं.

पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार में उद्योग मंत्री रहे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जो बाद में जनसंघ के संस्थापक बने) ने अपने विभाग में बकायदा एक गोपनीय परिपत्र के ज़रिए मुसलमानों को नौकरियों में लेने से रोका. उस गोपनीय परिपत्र का मजमून कुछ इस तरह से था, पाकिस्तानियों या संभावित पाकिस्तानियों को. मुसलमानों के प्रति कमोबेश कुछ ऐसा ही रवैया तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत का रहा. उन्होंने अपने एक शासनादेश में कहा था कि पुलिस और सेना में मुसलमानों की भर्ती न की जाए या कम से कम की जाए. पंत का यह शासनादेश जाने-अनजाने आज तक बरक़रार है.

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